ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'तुम्हारा नाम?'
'केथू। कलकत्ता में कॉलिज तक पढ़ा हूँ। एक समय से जाति को उठाने का यत्न कर रहा हूँ, किन्तु...'
'मैं समझा!' विनोद ने सांत्वना की साँस खींचते हुए उत्तर दिया और उसकी ओर हाथ बढ़ाकर उसकी यथोचित सहायता करने का वचन दिया। केथू ने बताया कि यह चोर-रास्ता झील पर जा निकलता है। कंपनी के संतरियों से बचकर तो उसका यहां आना सरल नहीं, परन्तु इस मार्ग द्वारा वह उन्हें मिलता रहेगा। उसने धरती से वह चमकदार छुरी उठाई और ज़रा-सा उँगली को चीरकर विनोद के माथे पर लहू का तिलक लगाते हुए आज्ञा-पालन की शपथ उठाई।
उसके लौट जाने पर थोड़ी देर तक दोनों उस गुफा को देखते रहे, फिर विनोद ने पाँव की भारी ठोकर से वह तख्ता उल्टा दिया। चोरमार्ग लुप्त हो गया और उसके स्थान पर वही फर्श दिखाई देने लगा।
विनोद ने माधवी को सहारा देते हुए एक हल्की-सी हँसी छोड़ी और कहा, 'देख लिया भूत? कितना समझदार और...'
'कहीं कोई और आपत्ति न खड़ी हो जाए!'
'आपत्ति कैसी? अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना सत्य है और उसको दबाना एक महापाप है।'
गुसलखाने का किवाड़ बन्द करके दोनों अपने कमरे में लौट आए। अपनी घबराहट और बेचैनी को दूर करने के लिए माधवी भी विनोद के पास ही आ बैठी और अपना सिर उसके सीने पर रखकर उसके हृदय की धड़कन सुनने लगी।
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