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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'परन्तु इस हत्या का कारण?'

'अपने भाइयों को उसकी क्रूरता से बचाने के लिए। बहुत ही निर्दयी था वह।' उसने रुककर फिर कहा, 'आप ही की भाँति यहाँ एक दयावान हिन्दुस्तानी अफसर भी था जो सदा हमारे अधिकारों के लिए कम्पनी से लड़ा करता था।'

'तो कहाँ गया वह?'

'उस नीच अंग्रेज़ ने उसपर एक झूठा अभियोग लगाया कि वह उसकी पत्नी पर कुदृष्टि रखता है और उसे नौकरी से निकलवा दिया।'

'ओह' इसीलिए उनकी मत्यु का उससे संबंध बताया जाता है!'

'हाँ, परन्तु उनका वास्वविक हत्यारा मैं हूँ। मैंने ही आवेश में आकर उन दोनों को मौत की नींद सुला दिया। लोग समझते हैं कि मैं उस हत्या वाली रात को उनके यहाँ से डरकर भाग गया था, परन्तु यह कोई नहीं जानता कि उन्हीं की पिस्तौल से मैंने ही उन्हें मारा है।'

'तुम खूनी हो...किसी को तुमपर सन्देह नहीं...फिर डरते क्यों हो?'

'मुझे किसी का डर नहीं...परन्तु इस खून के बाद मुझमें अन्याय के विरुद्ध उठने का बल नहीं रहा। कोई अज्ञात आत्मा आकर मुझे धिक्कारती है और मैं कुछ भी नहीं कर पाता। आज बड़े समय बाद अंधेरे मन में उजाले की एक किरण आई...और वह आप हैं।'

'मैं! मैं क्या कर सकता हूँ?'

'हमारी डूबती हुई जाति का कल्याण...उनके अधिकारों के लिए लड़ना...निशि-दिन हमारे भाई-बन्धु ईसाई बनाए जा रहे हैं...इसकी रोकथाम करना।'

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