ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'मुझसे?' विनोद ने आश्चर्य से उसे देखते हुए कहा-'इस चोर-मार्ग से? यह सब क्या है?'
'आप कम्पनी की ओर से हमपर निरीक्षक हैं न?'
'हाँ, परन्तु खेतों में काम करने वाले मज़दूरों का, यहाँ के बसने वालों का नहीं।'
'यहाँ रहने वाले और हैं ही कौन! उनके जीवन का और कोई साधन नहीं।
'परन्तु इन बातों का मुझसे क्या सम्बन्ध? आखिर तुम यहाँ क्या करने आए हो?
'आप वचन दीजिए कि मेरी कोई बात खुलने न पाएगी?'
'कहो, क्या बात है?' विनोद ने पिस्तौल वाला हाथ ढीला करते हुए कहा।
उसने अपने हाथ नीचे कर लिए और बोला-'घबराइए नहीं, मैं कोई भयप्रद निश्चय नहीं रखता, मैं तो आपके पास सहायता के लिए आया हूँ।'
'कैसी सहायता?' विनोद बड़े ध्यान से उसकी बात सुनने लगा।
माधवी अभी तक डर से उसके साथ चिपकी हुई थी।
उसने बताया कि वह यहाँ के लोगों का मुखिया था, परन्तु एक समय से गुप्त रूप में रह रहा था। बरसों पहले इसी कोठी में उसने एक अंग्रेज़-दम्पती की हत्या की थी। उस रात भी वह इसी चोर-मार्ग से आया था। उनको मारने से पहले वह उनके यहाँ माली का काम करता था।
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