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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


एकाएक एक धमाका हुआ और उसके साथ ही कुछ गिरने की आवाज आई। 'कौन है?' विनोद ने पिस्तौल की नली अँधेरे में ले जाते हुए ऊँचे स्वर में कहा। उसी समय माधवी ने काँपते हाथों से गुसलखाने की बत्ती जला दी।

दोनों सिर से पाँव तक काँप गए। सामने गुसलखाने का फर्शी तख्ता उठा हुआ था और नीचे एक अँधेरी गुफा दिखाई दी। कोई व्यक्ति पीछे की ओर भागता हुआ प्रतीत हुआ। विनोद ने साहस से काम लिया और दो पग आगे बढ़कर हवा में गोली छोड़ते हुए चिल्लाया, 'कौन है?...बाहर आ जाओ, नहीं तो यहीं गोली से उड़ा दूँगा!'

चंद क्षणों की चुप्पी के पश्चात् आहट हुई और फिर एक व्यक्ति सिर पर बोरी बाँध धीरे-धीरे गुफा से बाहर निकला। जैसे ही वह भयानक मुख बाहर निकला, माधवी की डर से चीख निकल गई।

'भूत!' उसके हाथ में चमकता हुआ छुरा देखकर वह चिल्लाई।

विनोद ने छुरा फेंकने की आज्ञा दी। आने वाले व्यक्ति ने उसे फेंक दिया और हाथ उठा दिए।

विनोद ने ध्यानपूर्वक उसे देखा-वह यहीं का कोई व्यक्ति दीखता था। उसका रंग काला था किंतु उसकी आँखों में एक विशेष प्रकार की दृढ़ता निहित थी। विनोद ने अपना प्रश्न दोहराया।

'मैं भूत नहीं हूँ, नागा हूँ-यहीं का रहने वाला।'

'यहाँ क्या लेने आए हो?'

'आपसे मिलने।'

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