ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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उसी समय कमरे के मौन वातावरण में एक अनोखी ध्वनि सुनाई दी। वह ध्यान से उस ध्वनि को सुनने लगी। जान पड़ता था जैसे कोई एक ही ताल में थोड़े-थोड़े समय बाद कहीं हथौड़े की चोट लगा रहा हो। हथौड़े की ठक-ठक की ध्वनि झील में पड़ते हुए पानी की उछाल के साथ भय को बढ़ाने लगी। ध्वनि प्रतिक्षण बढ़ रही थी। माधवी की भय से साँस रुक गई और हृदय की धड़कन तेज हो गई। वह डरते-डरते अपने बिस्तर से उठी और रेंगती हुई विनोद के बिस्तर पर चली गई।
'सुनिए!' उसने अपनी रुकी हुई साँस को विनोद के कानों में छोड़ते हुए धीरे-से कहा-'यह ध्वनि कैसी?'
'यही तो मैं सोच रहा हूँ।' विनोद ने माधवी को अपने सीने से लगाते हुए उत्तर दिया। यह जानकर माधवी को सांत्वना हुई कि वह अभी तक जाग रहा है। भय से-अकड़े हुए अपने शरीर को उसकी बाँहों में ढीला छोड़ते हुए उसने फिर कहा-'कहीं यह भूत...'
'पागल न बनो! यह भूत-प्रेत कुछ नहीं। शायद कोई बाहर के किवाड़ का ताला तोड़ने का प्रयत्न कर रहा है।'
माधवी ने हाथ बढ़ाकर बेड-स्विच को दबाना चाहा; परन्तु विनोद ने उसे रोक दिया और ध्यान से उस ठक-ठक को सुनने लगा। धीरे से हाथ को तकिये के नीचे ले जाकर उसने उँलियों में कसकर पिस्तौल को पकड़ लिया और पलंग से उतरकर बिना आहट किए दबे-पाँव उस ध्वनि की ओर बढ़ा। माधली भी धीरे-धीरे उसके साथ आ गई। पास जाकर उन्हें पता चला कि ध्वनि बाहर के किवाड़ से नहीं बल्कि साथ वाले गुसलखाने से आ रही थी। विनोद दीवार से लगकर चोर-दृष्टि से अँधेरे गुसलखाने में झाँकने लगा। वहाँ कुछ भी दिखाई न दे रहा था; परन्तु वह हथौड़े की ध्वनि बढ़ती हुई स्पष्ट सुनाई दे रही थी।
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