ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'ओह, तुम्हें अभी इसका अनुभव नहीं, थोड़े दिनों में जान जाओगे! ये लोग जानवरों से भी बुरे हैं...ठीक करना ही होगा!'
'क्या मुझे?'
'हाँ तुम्हें। इसका सुपरविजन तभी हो सकेगा...वरना ये आदमी बहुत कामचोर हैं।
'लेकिन स्त्रियों पर हाथ उठाना...'
'यहाँ मर्द लोग नज़र ही नहीं आते...सब काम स्त्रियाँ करती हैं। मर्द अफ़ीम का नशा करके बस सोते हैं... 'बिल्कुल निकम्मे।'
दूसरे ही दिन नियम से विनोद ने काम पर आना आरम्भ कर दिया। वह इन लोगों से पशुओं के समान व्यवहार न करना चाहता था। वह यह तो भली प्रकार जान गया था कि यहाँ के लोग कामचोर होते हैं; परन्तु वह उनकी आत्मा को कोड़े मारकर न जगाना चाहता था।
जब वह घोड़े पर सवार धीरे-धीरे लहलहाते खेतों में से गुजर रहा था तो वहाँ काम करने वाले फटी-फटी आँखों से उसकी ओर देखने लगे। उनकी आँखों में क्रोध और निराशा थी। शायद किसी ने कभी सहानुभूति न की थी।
अपनी ओर उन्हें यों देखते हुए देखकर विनोद को उनपर तनिक भी क्रोध न आया। वह अपने और उनके बीच एक अपार फासला अनुभव कर रहा था जिसे वह समाप्त कर देना चाहता।
उसे आता देखकर एक स्त्री बाड़ की ओर भागी और आसामी भाषा में कुछ पुकारने लगी। शायद कोई माँ अपने बच्चे को दूध पिला रही थी और वह उसे विनोद के आ जाने की सूचना दे रही थी कि वह उसे आराम करते न देख ले।
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