ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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दूसरी सुबह माधवी विनोद को मोटर में बिठाकर कम्पनी के दफ्तर में छोड़ने आई। विलियम ने उसे देखकर हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और आगे बड़कर हाथ मिलाते हए बोला-'मिस्टर मुखर्जी, कांग्रेचुलेशन्स।'
'आल क्रेडिट टु यू मिस्टर विलियम।'
विलियम उसकी बात सुनकर मुस्करा दिया और उसे बैठने को कहा। माधवी विनोद को छोड़कर लौट गई। विनोद को यों लगा जैसे कोई बड़ा आदमी बालक को पाठशाला में शिक्षक के पास छोड़कर चला गया हो। वह उसका कितना ध्यान रखती है! यह सोचकर वह मन-ही-मन अपने सौभाग्य पर प्रफुल्लित हो उठा।
एक घोड़े पर विलियम और दूसरे पर विनोद सवार होकर चाय की ढलानों की ओर चल दिए। चारों ओर लहराते हुए चाय के खेत और धरती के ऊँच-नीच पर सरसराती हुई हवा वातावरण में एक मधुर संगीत भर रही थी। खेतों से दूर...बहुत दूर धूप में चमकती हुई पगडण्डियाँ धरती पर एक जाल-सा बिछा रही थीं। सुगन्धित पवन साँसों में बस रही थी। चहचहाते हुए पक्षियों के झुण्ड आकाश में इधर से उधर उड़ जाते। इस सुहावने समय में प्राकृतिक दृश्यों को देखते वे दोनों उस पगडण्डी पर बढ़ते चले जा रहे थे।
ऊँचाई से घोड़े नीचे ढलान की ओर चले और विनोद का मन एक उन्माद से झूम उठा। कितना सुन्दर दृश्य था! कुछ दूर जाने पर बहुत-सी आवाज़ें उसके कानों में पड़ने लगीं-एक ही साथ मिली-जुली-सी पतली आवाज़ों की गुनगुनाहट, जिसमें जीवन की पीड़ा कराह रही थी, जिसमें बिलखते हुए बच्चों की ध्वनियाँ भी सम्मिलित थीं। इन आवाज़ों को सुनकर झूमते हुए खेत लज्जा से ज़मीन की ओर झुकते जा रहे थे।
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