ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'एकाकीपन कैसा?...क्या मेरा साथ...''
'नहीं माधवी, ऐसा मत सोचो! मेरा अभिप्राय समय से है। तुम तो समझदार हो...मनुष्य हूँ...उल्टी-सीधी बातें मस्तिष्क में आ ही सकती हैं।'
'कैसी बातें?'
'यही, बेकार हूँ...कोई काम नहीं...सोचता हूँ, फिर किसी अच्छे स्थान की खोज करूँ।'
'तो हमारे पास क्या कमी है? आखिर यह सब किसका है?'
'अपना ही है, परन्तु समय और विचारों के परिवर्तन के लिए कुछ तो चाहिए, चाहे वह मज़दूरी ही क्यों न हो। तुम तो जानती हो कि आदमी बेकार अच्छा नहीं लगता।'
'ओह, तो यह बात है! कल ही लो।' वह चुटकी बजाते बोली।
'क्या?'
'वह आप मुझपर छोड़ दें।'
अगले दिन माधवी विलियम से मिली और उसने विनोद के लिए कोई काम निकालने के लिए कहा। वह भली प्रकार समझती थी कि आदमी बिना किसी काम में लगे स्वयं में एक अभाव-सा पाने लगता है और यही उसकी व्याकुलता का कारण है। विलियम को कब इन्कार था! उसने दूसरे ही दिन उसके लिए एक अच्छी सी पोस्ट का प्रबन्ध करवा दिया।
माधवी ने जब इसकी सूचना विनोद को दी तो वह झट बोला-'क्या काम होगा?'
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