ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
विनोद ने स्वयं को बदल डाला। वह अतीत को बिसराकर एक नूतन दुनिया में चला आया था। माधवी के कहने से उसने अपना नाम विनोद से बदलकर श्री वी० मुखर्जी रख लिया। वह जानता था कि जब कभी मिलिट्री वालों को पता चल जाएगा कि वह जीवित है, उसे तुरन्त अपने काम पर लौटना पड़ेगा और वह दोबारा उस नरक में न जाना चाहता था। माधवी भी यही चाहती थी। उसके बिना तो उसके लिए एक क्षण भी काटना कठिन हो जाएगा।
लेकिन विनोद का एकाकीपन और उदासी दूर न हो सकी। एक दिन माधवी बोल ही उठी-
'एक बात पूछूं?'
वह माधवी के प्रश्न पर एकाएक चौंका।
'देख रही हूँ, कुछ बेचैन रहने लगे हो।' क्षण-भर के मौन को तोड़ते हुए माधवी कह उठी।
'कौन? मैं...और बेचैन?' होठों पर मुस्कराहट लाते हुए रुक-रुककर बोला।
'बेचैन नहीं...उदास।'
'नहीं माधवी, कोई विशेष बात नहीं।'
'विशेष नहीं तो साधारण सही।' झील के किनारे बैठते हुए वह बोली।
'सोचता हूँ, इतनी आयु एकाकीपन में कैसे कटेगी?' यह कहते हुए विनोद उसके पास बैठ गया और मन की बेचैनी को दबाने के लिए कंकर उठाकर पानी में फेंकने लगा।
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