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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'क्यों, क्या विचार है?' विनोद ने मौन को तोड़ते हुए पूछा।

'यह भूत हम अवश्य देखेंगे।' माधवी ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया।

विनोद ने बंसी को सामान उतरवाने का संकेत किया और दोनों बरामदे में खड़े होकर आसपास का दृश्य देखने लगे।

चन्द ही दिनों में उस कोठी का रूप-रंग बदल गया। दीवारों, छतों और किवाड़ों की सफाई से रंग निखर आया। घर का सामान ढंग से लगने से उस प्रेतग्रस्त मकान में भी आबादी के चिह्न दिखाई देने लगे। घुटे हुए वातावरण के स्थान पर अब सुगन्धित वायु के झोंकों का राज्य था जो वहाँ फूलों की महक बिखेर जाते। रात के सन्नाटे में अब वहाँ भय नहीं; बल्कि आशा और प्रेम के झूले झूले जाते। कोठी के चारों ओर उजड़े हुए बाग में हरियाली आ गई थी।

दोनों के अथक परिश्रम ने वहाँ का नक्शा ही बदल दिया। प्रतिक्षण वे एक-दूसरे के समीप होते जा रहे थे। विनोद को यों लग रहा था मानो उसकी कल्पनाओं ने वास्तविकता का रूप धारण कर लिया है और वह एक सुहावनी मंज़िल की ओर अग्रसर है। माधवी के पाँवों की धीमी-सी चाप भी उसके हृदय की धड़कन को तीव्र करने के लिए पर्याप्त थी। वह उसका पागल बन चुका था।

दुनिया भर की सुविधाएँ उसके पास थीं। रुपया पानी की भाँति आता और खर्च हो जाता। टी-स्टेट में हर ओर उनके प्रेम की चर्चा थी। कम्पनी के हिन्दुस्तानी और अंग्रेज़ अफसर उन्हें कभी-कभी अपने यहाँ खाने पर निमन्त्रित करते और अच्छी रौनक हो जाती। कभी शिकार, कभी पिकनिक और कभी दूर पहाड़ों की सैर-हर क्षण प्रसन्नतापूर्ण था।

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