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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


दोनों ने सजे हुए डाकबँगले को देखा और वहाँ की सजधज देखकर चकित रह गए, मानो किसी राजा के आगमन का प्रबन्ध हुआ हो। और इसमें झूठ भी क्या था! माधवी अब पूरी बरमन स्टेट की मालकिन थी। अंग्रेज़ कम्पनी प्रतिवर्ष एक बड़ी रकम उन्हें किराये में देती थी। इसके अतिरिक्त व्यापार में भी कुछ भाग के वह साझीदार थे। फिर वह क्यों न उसे मान देते और उसका स्वागत करते!

परन्तु विनोद को यह सजावट और आराम अच्छा न लगा। वह बस्ती की चहल-पहल छोड़कर इस वन में इसलिए आया था कि चंद क्षण शांति से बिता सके। वह माधवी द्वारा प्राप्त किए हुए सुखों और सुविधाओं का दास बनना न चाहता था। जब वे बँगले से बाहर आए तो माधवी ने मुस्कराते हुए पूछा-'पसन्द आया स्थान और प्रबन्ध?'

'ऊँहूँ!' विनोद ने मोटर से उतरकर सामान पर दृष्टि डालते और माधवी की ओर मुड़ते हुए कहा-'क्या और कोई स्थान नहीं यहाँ रहने को?'

'किसलिए?'

'कोई ऐसा स्थान जहाँ मैं और तुम...केवल हम दोनों रह सकें? यह नौकर-चाकर...लोगों का रेला...जीवन की इतनी सुख-सुविधाएँ न मिल सकें...समझीं कुछ?'

'हाँ!' माधवी विनोद के आशय को समझते हुए बंसी को एक ओर ले गई और उसके कान में कुछ कह दिया। पहले तो गम्भीर होकर वह उसकी बात सुनता रहा और फिर दबे होंटों से मुस्करा दिया।

जैसे ही दोनों ने विनोद की ओर घूमकर देखा, उसने नौकरों को सामान फिर से गाड़ी में रखने की आज्ञा दे दी और स्वयं भी गाड़ी में बैठने के लिए बढ़ा। माधवी ने विलियम का धन्यवाद किया और विनोद के साथ गाड़ी में बैठ गई। वह आश्चर्य से उनके निश्चय को भाँपने का प्रयत्न करने लगा; किन्तु कुछ भी समझ न पाया।

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