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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


विनोद दफ्तर से बाहर आया तो माधवी को यों मुग्ध खड़े देख चुपचाप उसे देखने लगा। सोई-सोई-सी वह आँखें, उनमें अधूरे सपनों का उन्माद, गोरे गालों पर हल्की-सी लालिमा का निखार...वह अपने स्रौभाग्य पर मुस्करा दिया और ऊँचे स्वर में पुकारा-'माधवी!'

'ओह...मैं यहाँ हूँ।' वह खोई हुई अवस्था से जागी और संभलते हुए बोली-'पुकारा तो इतनी ज़ोर से जैसे मैं कहीं दूर खो गई हूँ!'

'लग तो ऐसे ही रहा था वरना इतनी देर से खड़ा तुम्हें देखता ही रह जाता।' इस पर एक साथ हल्की-सी हँसी की बौछार हवा में उड़ गई। माधवी ने पूछा-'हुआ कुछ प्रबन्ध?'

'मैनेजर का सेक्रेटरी आ गया...सब प्रबन्ध ठीक है।'

थोड़ी देर में मिस्टर विलियम, जो मिस्टर टामस, स्टेट-मैनेजर का सेक्रेटरी था, दफ्तर से बाहर आया और उसके पास आते ही बोला, 'हैलो...मिस बरमन...ओह, आई एम सॉरी मिस्टर विनोद!'

माधवी ने उससे हाथ मिलाना चाहा; परन्तु फिर कुछ सोचते हुए दोनों हाथ जोड़कर उसने नमस्कार किया। तीनों मुस्कराते हुए गाड़ी में बैठकर डाकबँगले की ओर हो लिए। रास्ते में मिस्टर विलियम विनोद को बरमन साहब की स्टेट के विषय में जानकारी देता रहा।

विलियम उन्हें डाकबँगले में ले गया, जहाँ पर पहले से ही उनके ठहरने का प्रबन्ध किया जा चुका था। वहाँ उनका पुराना माली बंसी भी था। माधवी तो बंसी को न पहचान सकी, परन्तु बंसी ने उसे झट पहचान लिया और स्वामी को याद करके रोने लगा। माधवी ने बंसी के विषय में डैडी से सुन रखा था। वह यहाँ की हर बात उन्हें लिखता रहता था और उसके डैडी सदा उसकी प्रशंसा करते थे।

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