लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट

एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

429 पाठक हैं

'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


10


दिसम्बर की सुहावनी सुबह थी। ठण्डी हवा शरीर को चीर रही थी। सर्दी से बचने के लिए सब बन्द कमरों में बैठे थे। हिमालय की हिमपूर्ण शिखाएँ सुनहरी किरणों से चमक रही थीं।

बरमन स्टेट के फाटक से एक मोटरगाड़ी आई और बल खाती हुई सड़क से गुज़रती सीधी कम्पनी के दफ्तर में जा पहुँची।

दरवान ने बढ़कर गाड़ी का दरवाजा खोला और विनोद और माधवी नीचे उतरे। विनोद दफ्तर के भीतर चला गया और माधवी हवा से उड़कर कपोलों पर आई लटें सँवारने लगी। उसने दूर तक फैली ऊँची-नीची घाटियों पर दृष्टि दौड़ाई। उसके अधरों पर स्वयं ही एक मधुर मुस्कान खिल आई-प्रसन्नता की मुस्कान।

आज बड़े समय बाद उसे हार्दिक खुशी प्राप्त हुई थी। पिता के लाड़-प्यार में भी वह एक अभाव अनुभव करती थी। वे अपने कामधंधे में जुटे रहते और वह सबसे अलग अकेली-न माँ, न भाई, न बहिन-और यों ही एकाकी जीवन बीतता गया। जवान हुई तो बर्मा युद्ध की लपेट में आ गया। हर पल, हर सांस भयपूर्ण और वहाँ से प्राण बचे तो पिता की मृत्यु ने सुख की घड़ियों पर चिन्ता के घनघोर बादल ओढ़ा दिए।

अब वह अपने साथी को पाकर सब दुःख और चिन्ता को बिसरा चुकी थी। वह मोटर के मडगार्ड का सहारा लेकर सुबह की हवा का आनन्द लेने लगी। आज की यात्रा...यह यात्रा उसकी मधुमास की यात्रा थी। उन्होंने इन्हीं पहाड़ियों को मधुर मिलन के लिए चुना था।

ज़मींदार साहब ने कम्पनी-मैनेजर को पहले से ही तार द्वारा उनके आने की सूचना दे रखी थी। उनके रहने का प्रबन्ध उसी को करना था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय