ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'आइए-आइए! आप कैसे?'
'यों ही चला आया। कहो, क्या हो रहा है?'
'कुछ नहीं...बैठिए! आज्ञा की होती मैं स्वयं चला आता।'
बरमन साहब ने कुर्सी पर बैठते हुए विनोद को बैठ जाने का संकेत किया और बोले-'अकेलापन...बिना काम के बड़ा विचित्र लग रहा होगा?'
'जी!...' अपनी घबराहट और बरमन साहब के प्रश्न के तीखेपन को जाँचते हुए वह बोला-'समझ में नहीं आता क्या किया जाए!'
'क्यों?'
'फौजी जीवन से तंग आ चुका हूँ...सोचता हूँ, किसी सिविल जॉब का प्रयत्न करूँ। एक-दो स्थानों पर लिख चुका हूँ, देखिए क्या होता है!'
'कोई आशा है?'
'आशा...! मन्द हँसी हवा में छोड़ते हुए वह बोला-'आशा तो क्या जमींदार साहब, सर्विस अपने हाथ में है। कला पास हो तो डर कैसा? प्रश्न तो यह है कि वह कहाँ मिलती है और क्या मिलता है?'
'परन्तु, मिस्टर विनोद! नौकरी फिर भी नौकरी है।'
'और किया भी क्या जा सकता है?' उसने पूछा।
'कहो तो मैं परामर्श दूँ?'
'अवश्य!'
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