ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'कितना प्रेम है...बस?' बात पूरी करते हुए वह बोला।
'जी...और यदि असफल हो गए तो...'
'तो...तुम्हें न पा सकूँगा...यह असम्भव है। मैं आज ही से अध्ययन आरम्भ करता हूँ।'
'कैसा अध्ययन?'
'प्रेम-शास्त्र...प्रीति-ग्रन्थावली...और...
'आप तो मज़ाक करते हैं। मेरा आशय था सावधान रहिएगा। किसी समय वह आपसे कोई प्रश्न कर बैठेंगे।'
'ओह...!' विनोद का मुख एकाएक किसी विचार से गम्भीर पड़ गया। किसी अज्ञात डर से उसका मन धड़कने लगा और वह चुपचाप अपने कमरे में लौट आया। बरमन साहब उससे क्या पूछेंगे?'
इसी तरह की उलझन में खोया न जाने वह कितने समय तक अकेला बैठा सिगरेट फूँकता रहा। रात के कोई नौ बजा चाहते थे कि बरामदे में किसीके पाँवों की चाप सुनाई दी। विनोद ने सिगरेट बुझा दिया और चौकन्ना होकर उस आहट को सुनने लगा।
चारों ओर मौन था। बाग में कभी-कभी हवा के झोंकों से पत्तों के हिलने का स्वर सुनाई पड़ता। वह कान लगाकर उस आहट को जाँचने का प्रयत्न कर रहा था जो प्रतिक्षण निकट आती जा रही थी।
विनोद ने लपककर मेज से एक पुस्तक उठाई और उसे खोलकर पढ़ने का बहाना करने लगा। आहट उसके पास आकर रुक गई। उसने पुस्तक बन्द करके मुड़कर देखा और झट कुर्सी छोड़कर उठ बैठा।
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