ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'यह तो तुम जानते ही हो कि माधवी अकेली रह गई है।'
'जी...!' वह चौंकते हुए सँभल गया और बरमन साहब की बात को ध्यानपूर्वक सुनने लगा।
'मेरा विचार है कि इतनी बड़ी स्टेट का काम वह न सँभाल सकेगी।'
'तो!'
'क्या यह सम्भव नहीं कि यह उत्तरदायित्व तुम उठा लो!'
'मैं...क्या?'
'हाँ-हाँ...तुम...आखिर उसके पिता के न होने से हमें किसी को तो इस काम पर लगाना ही है।'
'परन्तु यह क्योंकर सम्भव है?'
'क्यों नहीं?'
'अनुभव का अभाव...और फिर हम दोनों का सम्बन्ध...ज़मींदार साहब! शायद आप नहीं जानते कि हम एक-दूसरे का कितना आदर करते हैं। मैं नहीं चाहता कि मेरे और उसके बीच रुपये-पैसे या नौकर-मालिक का नाता हो जो हमें एक-दूसरे से दूर कर दे। उसकी सम्पत्ति की देखभाल के लिए तो आपको कई विश्वस्त व्यक्ति मिल जाएँगे; परन्तु इस कारण से हमारे दिलों में आए हुए मैल को शायद कोई भी न धो पाए।'
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