ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
9
दिन बीतने लगे। हर प्रात: सुहावनी, दोपहर आनन्दपूर्ण और साँझ रंगमय होने लगी। दोनों एक-दूसरे की ओर खिंचते चले जा रहे थे। विनोद भी अतीत को बिसरा माधवी की सुन्दर कल्पना में खोया जा रहा था। रात को जब दोनों अकेले अपने बिस्तरों पर जा लेटते तो एक-दूसरे के विचारों में मग्न वे कहीं दूर सितारों की गहराइयों में खो जाते।
प्राय: रात के एकाकीपन में विनोद को कामिनी और नन्हें का विचार आ जाता तो वह अनायास ही तड़पकर रह जाता। उसके मन में एक पीड़ा होती और कोई अज्ञात दबाव उसे गहराई में ले जाता प्रतीत होता।
माधवी के सम्मुख होते तो वह संसार को भुला सकता था, परन्तु उसके आँखों से ओझल होते ही उसे स्वयं में एक बड़ा अभाव-सा लगता। इसी एकाकीपन से घबराकर वह कभी माधवी से कहने लगता, 'आओ, कहीं दूर भाग चलें!'
'किसलिए?'
'मेरा अभिप्राय यह है कि इस चहल-पहल की दुनिया से दूर किसी उजाड़ में चलें, जहाँ हम दोनों के अतिरिक्त कोई न हो।'
माधवी उसकी गम्भीर सूरत को देखकर हँसने लगती; परन्तु वह उसके मस्तिष्क की हलचल का अनुमान न कर सकती।'
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