ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
एक दिन माधवी ने मन की बात अपने चाचा से कह दी कि वह विनोद से ब्याह करना चाहती है। वह उन दोनों की घनिष्ठता को पहले से ही जानते थे, सो उन्हें माधवी की इस बात पर कोई आश्चर्य न हुआ। माधवी पढ़ी-लिखी, अपनी बातों की स्वयं उत्तरदायी और सयानी थी। वे उसके निर्णय पर क्या कह सकते थे! फिर भी अपने बड़प्पन का ध्यान रखते हुए उन्होंने कहा- 'परन्तु यह कैसे हो सकता है!'
'क्यों, अंकल?'
'वह पंजाबी...तुम बंगाली...जात अपनी नहीं...कौन है, कैसा है, कहाँ का रहने वाला है, कौन जाने!'
'मैं सब जानती हूँ...और फिर यह जात-पाँत के पुराने ढंग...मुझे क्या लेना है इनसे?'
'तुम्हें तो कुछ नहीं...किन्तु लोग क्या कहेंगे?'
'लोगों की मुझे क्या चिन्ता! मेरा जीवन मेरा अपना है...किसी को क्या?'
'परन्तु तुम कैसे कह सकती हो कि तुम्हारा चुनाव ठीक है?'
'मेरा मन साक्षी है...और फिर आपकी भतीजी कोई अयोग्य बात क्यों करेगी?'
'मैं तुम्हारी प्रसन्नता में बाधा नहीं डालना चाहता। तुम शिक्षित हो, सयानी हो; परन्तु एक बात का भय है मुझे।'
'क्या भय?'
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