ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'ओह...मैं तो भूल ही गई...आप कितनी लम्बी यात्रा से आए हैं...चाय...'
'ठहरो! बरमन साहब कहाँ, हैं?'
'अपने कमरे में। आज कई दिन से बिस्तर पर हैं।'
'बिस्तर पर? क्यों, कुशल तो हैं?'
'वही गुर्दे का दर्द...फिर बढ़ गया।'
विनोद माधवी के साथ बरमन साहब के कमरे की ओर बढ़ा। आज उसे यह अपने घर के समान ही लग रहा था; मानो वह भी उसी घर का व्यक्ति था।
जमींदार बरमन की कोठी का रंग-ढंग बदलने लगा। कमरों को नये ढंग से सजाने में विनोद और माधवी अपना समय बिताने लगे। पकवानों में भी परिवर्तन होने लगा। थोड़े ही दिनों में बरमन साहब ने अनुभव किया कि उनकी भतीजी के मन पर से चिंता का बोझ हटता जा रहा है।
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