ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'यह क्या दशा बना रखी है?' विनोद ने धीरे से उसे बैठाते हुए कहा।
'कब आए?...और कैसे?
'अभी ही...तुम कहती थीं न कि तुम्हें किसी की बाँहों का आसरा चाहिए, सो मैं आ गया।'
'जानते हो मैं क्या सोच रही थी?'
'क्या?'
'अपने-आपको कोस रही थी...अपने मन की दशा पर...आप तो हृदय पर पत्थर रखकर चले गए।'
'क्या करता? तुमने कहा ही तब जब गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी। सोचा भी, चलती गाड़ी से कूद जाऊँ, परन्तु...'
'परन्तु साहस न कर पाया।' माधवी ने बात पूरी करते हुए कहा।
'नहीं...साहस तो था...सोचा कहीं टाँग-बाँह टूट गई तो सदा कहोगी किस अपाहिज से सम्बन्ध जुड़ गया।'
विनोद की इस बात पर माधवी की हँसी छूट गई। कमरे में उसकी खनखनाती चूड़ियों की ध्वनि गूँज उठी। बाहर बादलों में बिजली चमकी और गरज से वातावरण दहल उठा। माधवी काँप गई। विनोद ने बढ़कर उसे अपने सीने से चिपका लिया। उसके ठंडे शरीर में गर्मी अनुभव होने लगी। वह विनोद के और समीप हो गर्द और तेज साँस को उसके सीने पर छोड़ते हुए बोली- 'अब तो न चले जाइएगा?'
'नहीं, कभी नहीं; तुम जाने को कहोगी, तो भी न जाऊँगा।'
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