ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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माधवी इस मन्द बौछार में मन की व्याकुलता मिटाने के लिए अपनी कोठी के बाग में बैठी हुई थी। हवा के ठंडे झोंके उसके शरीर से खेल रहे थे।
माधवी उठी और घास में नंगे पाँव टहलने लगी। घास की पत्तियों में छिपी हुई नमी से उसका लहू जम गया। उसका शरीर बर्फ के समान सर्द हो रहा था। इसी में उसके लिए आनन्द था। वह अपनी दहकती हुई कामनाओं को भी सदा के लिए यों ही सर्द कर देना चाहती थी।
इसी दशा में टहलते-टहलते वह अपने कमरे में लौट आई। कमरे में रोशनी थी। एकाएक अँधेरे से उजाले में आ जाने से उसकी आँखें चौंधिया-सी गईं। वह अंघेरे में अपने बिस्तर पर लेट जाना चाहती थी।
ज्योंही उसने बुझाने के लिए बिजली के बटन की ओर हाथ बढ़ाया, एक कम्पन के साथ वह सहसा मूर्ति-सी बनकर रह गई। सामने कुर्सी पर मिलिट्री का कोट और टोपी पड़ी थी। उसने पथराई आँखों से इधर-उधर देखा। वहाँ कोई न था। वह कोट के जरा पास आई। उसके मन में गुदगुदी होने लगी। उसे विश्वास न आ रहा था। उसने अनुभव किया जैसे उसकी धमनियों में जमे हुए लहू को किसी ने चिंगारी दिखा दी हो।
वह आश्चर्यचकित दृष्टि को उठा भी न पाई थी कि गुसलखाने का किवाड़ खुलने और भारी पाँवों की ध्वनि सुनाई दी। माधवी विस्मित हो इधर-उधर देखने लगी।
शायद आश्चर्य से बेसुध वह फर्श पर गिर ही पड़ती यदि विनोद बढ़कर उसे अपने हाथों में न सँभाल लेता। उसे विश्वास न आ रहा था कि उसे थामने वाला वही व्यक्ति है जिसकी प्रतीक्षा करते-करते उसकी आँखें पथरा गई थीं।
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