ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
उसी समय बाहर अँधेरे में माधवी का मुखड़ा प्रकट हुआ-सुन्दर उदास पलकों में निराशा के आँसू और मन में प्रेम की कसक लिए हुए।
माधवी की कल्पना उसे पुकार रही थी। एक अज्ञात पीड़ा उसके मन में भर गई और वह तड़पकर रह गया। उसके मस्तिष्क में एक संघर्ष था जिसमें दो तस्वीरें बोल रही थीं-कामिनी और माधवी।
हर बार माधवी ही विजय पाती। एक ओर कर्त्तव्य और दूसरी ओर प्रेम; एक ओर डोलते हुए जीवन के हिचकोले और दूसरी ओर युवा आकांक्षाएँ; एक ओर घुटती हुई आशाएँ और दूसरी ओर बसंत की फूटती हुई नवनीत कलियाँ।
दुनिया, समाज और कामिनी के लिए वह मर चुका था। मृत्यु ने उसे संसार के उन बन्धनों से आज़ाद कर दिया था, जिनमें वह रहना नहीं चाहता था। उसे अब बुद्धि से काम लेना चाहिए। उसे अब एक नवजीवन में प्रवेश करना चाहिए।
उसने अपनी अकस्मात् मृत्यु पर दो आँसू बहाए और वापसी पाँव लौट आया। कोठी से बाहर निकलकर उसने एक ही झटके में दीवार पर लगे अपने नाम-बोर्ड को उतार फेंका। उसने अपना निशान मिटा दिया। परन्तु क्या वह कामिनी के हृदय-पट से भी उसे मिटा सकेगा?
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