ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
समाज और दुनिया के सामने वह अब बेसहारा विधवा थी। इस तस्वीर की पूजा करके उसे अपना शेष जीवन व्यतीत करना था। संसार की सब खुशियां उसके लिए अब व्यर्थ थीं। सर्वत्र अँधकार में केवल एक नन्हा ही उसके लिए जुगनू की भाँति टिमा-टिमा रहा था। घर की हर वस्तु शोक में डूबी हुई थी।
एकाएक भाभी और भैया कमरे में आए। भैया के हाथ में कुछ कागज थे। विनोद एक ओर हट गया और दीवार से कान लगाकर उनकी बातें सुनने लगा।
'यह लो कामिनी!'
'क्या?'
'जहाँ निशान लगा है, वहाँ अपने हस्ताक्षर कर दो।'
'ऐसी शीघ्रता भी क्या?'
'पागल न बनो, भाग्य को यह स्वीकार था...नन्हे का ध्यान करो और मेरी मानो, बीमे का रुपया नन्हें के नाम जमा कर दो।'
'जैसे आप उचित समझें।'
'और हाँ, आज मैंने फौजी अफसरों से पूछताछ की है। आशा है, तुम्हारी पैंशन लग जाएगी।'
फिर चुप्पी छा गई। विनोद ने चोर-दृष्टि से भीतर झाँका-भैया और भाभी कामिनी को बच्चों की भाँति मनाकर बाहर ले-जा रहे थे। अपनी मृत्यु के बाद का दृश्य उसने अपनी आँखों से देख लिया था। क्षण-भर के लिए उसकी पीड़ा दब गई और सांत्वना की एक तरंग से उसका मन गद्गद हो उठा।
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