ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'आपको पता नहीं?'
'ऊँहूँ!' उसने उत्तर में सिर हिला दिया।
'मेरे डैडी हमें छोड़कर चले गए हैं...हमसे बहुत दूर...वह अब न आएँगे।'
'सच?'
'हाँ...बड़े जहाज़ में बैठकर ऊपर उड़ गए हैं।' बच्चे ने आकाश की ओर उँगली करते हुए कहा।
इतने में किसी ने नन्हे को पुकारा। यह विनोद की भाभी की आवाज़ थी। वह भागा भीतर चला गया। विनोद दूर से खड़ा उसके नन्हे-नन्हे पाँव की चाल देखता रहा। बच्चे की धमनियों में उसी का रक्त था। उसका मन भर आया और उसने चाहा कि भागकर उसे पकड़ ले और अपने सीने से चिपका ले; परन्तु किसी विचार से उसके पाँव न उठ सके।
घर में कुछ शोर कम हुआ तो विनोद फाटक खोलकर भीतर आया और धीरे-धीरे बढ़ता हुआ कोठी के पिछवाड़े की ओर चला गया। उसने खिडकी की ओट में खड़े होकर अपने कमरे में झाँक कर देखा। उसकी दृष्टि अँगीठी पर रखी अपनी तस्वीर पर रुक गई। तस्वीर के चारों ओर फूलों की माला थी और सामने शोक की मूर्ति बनी कामिनी घुटनों में सिर टिकाए बैठी थी।
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