ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'ओह! नहीं तो!' भावों पर अधिकार पाते हुए विनोद ने अपने हाथों में उसका मुख उठाते हुए कहा-'तुम कहो तो मैं जीवन-भर अलग न रहूँ।'
'तो भागने में शीघ्रता क्यों?'
'सोचता हूँ, भाई-बन्धुओं को एक बार मुख दिखा आऊँ।'
इंजन ने सीटी दी और माधवी झट से सीट को छोड़कर उठने लगी। उसका हाथ छोड़ते हुए विनोद को यों लगा जैसे कोई उसका जीवन छीने लिए जा रहा हो। वह विवश था और भावनाओं पर अधिकार करते हुए वह खिड़की से बाहर प्लेटफॉर्म पर झाँकने लगा जहाँ माधवी उसे अन्तिम बार विदा कहने को रुकी थी। उसकी आँखों से आँसू ढलक रहे थे।
'माधवी, यह क्या?' भर्राए हुए स्वर में विनोद ने पूछा।
'विनोद, मेरा जीवन अब उस नाव की भाँति है जिसे नाविक और यात्री मँझधार में अकेली छोड़कर चल दिए हों। इतनी बड़ी दुनिया और अपना कोई नहीं...सोचती हूँ यह करोडों की सम्पत्ति, यह स्वार्थी दुनिया और जीवन के इतने बड़े बोझ मैं कैसे सहन कर सकूँगी? सोचा था, तुम्हारी बाँहों का सहारा मिल गया तो कट जाएगी, परन्तु तुम पर मेरा अधिकार ही क्या है!' यह कहते-कहते उसका मन भर आया।
गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी। वह चिल्लाया, 'माधवी!' परन्तु माधवी आँसुओं के प्रवाह को बलपूर्वक छिपाकर बाहर की ओर भागी। उसके अन्तर की हलचल का अनुमान वह भली प्रकार लगा रहा था, परन्तु वह विवश था। उसके मन पर बोझ-सा बैठ गया था।
गाड़ी बड़ी तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ रही थी जहाँ से उसको लाहौर के लिए दूसरी गाड़ी लेनी थी। धीरे-धीरे पटना में बीते हुए चंद दिन उसके मस्तिष्क में धुँधले पड़ते गए और कामिनी की सूरत स्पष्ट होती गई जो माधवी के समान ही आँखों में आँसू लिए तीन वर्ष से उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह विचारों में डूबा वहीं लेट गया।
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