ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
ज़मींदार बरमन की कोठी में शोक छा गया। मिलने-जुलने वाले और सगे-सम्बन्धियों का जमघट शोक प्रकट करने के लिए बढ़ता जा रहा था। विनोद ने ऐसे अवसर पर वहाँ से चले जाना ही उचित समझा। जाने से पूर्व उसने अकेले में माधवी से आज्ञा माँगी। मलिन मुख वह उसे रोकना तो चाहती थी; परन्तु ज़ोर न दे सकी और भीगी पलकें उठाकर केवल इतना ही कह पाई-'कल क्रिया है...उसके बाद चले जाइएगा।'
'तुम कहती हो तो रुक जाता हूँ।'
क्रिया के दूसरे ही दिन विनोद लाहौर जाने को तैयार हो गया। उसने अनुभव किया कि माधवी उससे कुछ कहना चाहती है, पर कह नहीं सकती। वह स्वयं भी ऐसे अवसर पर खुलकर उससे बातचीत करने का साहस न कर सका।
माधवी विनोद को छोड़ने स्टेशन पर आई तो विनोद उसका धन्यवाद करते हुए बोला-
'न जाने क्यों, ऐसी दशा में तुम्हें यहाँ छोड़कर जाने को मन नहीं चाहता।'
'इसीलिए तो छोड़कर जा रहे हो।' डिब्बे की खिड़की पर ठोड़ी टिकाते हुए माधवी बोली।
यह कहते हुए उसके गम्भीर होंठों पर हल्की-सी मुस्कान खिल आई। आज बड़े दिनों के बाद विनोद ने माधवी के होंठों पर मुस्कराहट की झलक देखी थी। उसकी भीगी पलकों में ठहरे हुए आँसू अभी तक उसके अंतस्तल की पीड़ा को स्पष्ट कर रहे थे। कुछ क्षणों के मौन को तोड़ते हुए फिर बोली- 'क्यों, किस उलझन में...'
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