ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
दिन बीतते गये। विनोद जब भी लाहौर जाने को कहता, माधवी विनय करके उसे दो-एक दिन और रुक जाने को कह देती। सुन्दर संग, प्यार, सुख-सुविधा-स्वर्ग को छोड़कर नरक में कौन जाएगा?
माधवी भी अकेली थी। इतने बड़े मकान में सिवाय उसके चाचा के कोई भी न था। उसकी चाची ब्याह के चंद वर्ष पश्चात् ही चल बसी थी और उन्होंने दूसरी शादी न की थी। आज इतनी बड़ी कोठी में माधवी की मधुर ध्वनि सुनकर वह फूले न समा रहे थे और माधवी विनोद को पाकर अति प्रसन्न थी।
नाश्ते के पश्चात् ताश, साज़-संगीत...शाम का घूमना और कभी-कभी पटना के पुराने ढंग के बाज़ारों में चले जाना...दिन चुटकियों में बीत जाता। रात आती तो दोनों अपने-अपने कमरे में बेचैन तड़पते। इस विवशता में जकड़े हुए भी वे एक आनन्द अनुभव करते। दिन-भर का साथ और घनिष्ठता कल्पना को रंगमय बना देती।
कभी-कभी विनोद के सुन्दर सपने सहसा कामिनी और अपने बच्चे का ध्यान आ जाने से छिन्न-भिन्न हो जाते और वह तड़प उठता जैसे किसी ने अचानक उसके हृदय में विष-भरी छुरी उतार दी हो।
अचानक एक शाम एक अशुभ सूचना ने उसकी रसमय घड़ियों को समाप्त कर दिया। रंगून जापानी आक्रमणकारियों की नज़र में था। गोला-बारूद ने बर्मा के इस सुन्दर नगर की धज्जियाँ उड़ा दीं और इस विनाश में माधवी के पिता मिस्टर बरमन भी आ गए।
पहले तो किसी को विश्वास न आया, परन्तु आज के सरकारी तार ने माधवी की आशाओं पर पानी फेर दिया। उसके पिता उसे सदा के लिए अकेली छोड़ गए। वेदना के इस पहाड़ ने उसे पत्थर की मूर्ति बना दिया। उसकी आँखों में आँसू लहू बनकर ठहर गए। वह स्थिर की स्थिर खड़ी रह गई। विनोद उसको धीरज बँधाना चाहता था; परन्तु वह भी उसके पास आकर अवाक्-सा मूर्ति बनकर खड़ा हो गया। वह विचार भी न कर सकता था कि जो कली कुछ दिन पहले पूरे उपवन की शोभा थी, ख़िज़ाँ आने के पूर्व ही कुम्हला जाएगी।
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