ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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ट्रक असाम की पहाड़ी सड़कों पर बढ़ता चला जा रहा था। नदियाँ, पहाड़ और घने जंगल बहुत सुन्दर लग रहे थे। चलते-चलते ट्रक के हिचकोले इस ज़ोर से लगते कि दोनों अपने स्थान से सरककर आपस में टकरा जाते। यह सीमित स्थान...दोनों को एक-दूसरे का स्पर्श...युवा हृदयों की धड़कनें...प्रतिक्षण उन्हें एक-दूसरे के समीप खीचें लिए आ रही थीं। दोनों मौन थे।
विनोद ने देखा-माधवी के मुख पर अब वह चंचलता और मुस्कान न थी जो वह पहले अनुभव कर रहा था। उसका स्थान अब संकोच, छिपी-सी घबराहट और उन्माद ने ले लिया था। उनकी आँखों के पपोटे बोझिल होते जा रहे थे। दोनों की तेज़ी से चलती हुई गर्म साँस ठण्डे वातावरण में भाप छोड़ रही थी। टीलों की ऊँच-नीच समाप्त हुई तो ट्रक ढलान में तेज़ी से उतरने लगा। एक मोड़ पर वह झटके से उछली कि माधवी अपने स्थान से हटकर विनोद के ऊपर आ गिरी। विनोद ने उसे अपनी बाँहों में संभाल लिया। रूप और तरुणाई...इच्छाएँ आपस में टकराईं और विनोद ने अपने होंठ माधवी के होंठों पर रख दिए।
ट्रक हवा की तेज़ी से बढ़ता गया। ढलान में उसकी गति प्रतिक्षण तेज़ होती जा रही थी और ये दोनों एक-दूसरे में समाए किसी और दुनिया में बहते रहे।
जब वे दार्जिलिंग पहुँचे तो रात हो चुकी थी। हिमालय की हिमपूर्ण शिखाओं से आती हुई ठण्डी हवा शरीर को चीरे जा रही थी। माधवी गठरी बनी सो रही थी। विनोद ने शीत से बचने के लिए अपना मिलिट्री कोट उसे ओढ़ा रखा था।
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