ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'जीवन में ऐसी घड़ियाँ भी आती हैं। मानव को धैर्य से काम लेना चाहिए। क्या जाने लौटने पर इससे भी कोई अच्छी मंज़िल मिल जाए!'
समय के अभाव और अपनी दार्शनिक बातों पर एक हँसी छोड़ते वे नाव में लौट आए। माधवी बड़ी देर तक उसी बोर्ड पर दृष्टि जमाए देखती रही। उसे बिना देखे छोड़कर जाने में उसे अच्छा न लग रहा था।
जब वे अड्डे पर पहुँचे तो समय तीन से कुछ ऊपर हो चुका था। वे शीघ्रता से लपककर भीतर आए; परन्तु जहाज़ जा चुका था। मन की सान्त्वना के लिए उन्होंने पूछताछ के अफसर से पूछा। उसने मुस्कराते हुए अंग्रेजी में दिया-'सॉरी...इट इज़ टु लेट।'
दोनों आश्चर्यचकित एक-दूसरे को देखते हुए वेटिंग-हॉल तक आ पहुँचे। किसी ने कोई और प्रश्न करना उचित न समझा और चुपचाप अपना सामान सँभालने लगे। उनके सब सहयात्री जा चुके थे। हॉल में चन्द सैनिक के अतिरिक्त और कोई न था।
जैसे ही दोनों बाहर जाने को तैयार हुए, अनायास ही उनकी हँसी छूट गई।
'यह भली रही!' हँसते हुए माधवी बोली, 'न आप पर कोई गिला, न अपना ही कुछ दोष।
'परन्तु अब क्या होगा?'
'नई यात्रा की तैयारी।' असावधानी से माधवी ने उत्तर दिया।
'कैसी यात्रा?'
'अब हवाई जहाज़ तो मिलने से रहा। कोई घोड़ा, मोटर, बस, या रेल मिल जाएगी...कुछ साहस से काम लेना पड़ेगा।'
'ओह, समझा!' यह कहते-कहते विनोद हवाई अड्डे के दफ्तर में चला गया।
बस तो दूसरे दिन जानी थी, परन्तु हवाई अड्डे के मिलिट्री अफसर की सहायता से उसे एक मिलिट्री ट्रक में स्थान मिल गया जो थोडे ही समय में दार्जिलिंग जा रहा था।
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