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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'और अन्तर हो भी तो क्या...दिलों में अन्तर नहीं होना चाहिए।'

माधवी ने ये शब्द कुछ इस ढंग से उसकी ओर देखते हुए कहे कि विनोद के संयम का पात्र छलक पड़ा। वह उसके और पास आ गया और झट से उसे अपनी बाँहों में समेट लिया। दोनों के हृदयों की धड़कनों ने एक-दूसरे से कुछ कहा और उन्हें लगा मानो वे चिरकाल से एक-दूसरे को जानते हैं।

'विनोद!' उखड़ी हुई साँस में धीरे से माधवी ने कहा।

'हाँ, माधवी!'

'हम कहाँ हैं?'

'एक विशाल झील की मँझधार में, प्रकृति के शांत आचल में।'

'तब तो मुझे आपसे डरना चाहिए!'

'क्यों?'

'मँझधार...दूर किनारा...निकट कोई व्यक्ति भी नहीं जिसे सहायता के लिए पुकार सकूँ...कहीं ऐसे सुनसान में...' वह कहते-कहते रुक गई।

'तुम्हें मँझधार में छोड़कर न चल दूँ?'

'हाँ।'

'जब मँझधार तक अकेली चले आने में संकोच नहीं, तो डूबने का क्या डर?'

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