ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'हम अचानक सहयात्री बने और थोड़े समय पश्चात् बिछुड़कर अपने-अपने मार्ग पर हो लेंगे; परन्तु कितना अन्तर होगा?'
'किसमें?'
'भेंट से पूर्व और उसके पश्चात।'
'यह तो जीवन है। मानव जब बढ़ता जाता है तो अतीत एक धुँधले विचारों की डोरी बनकर रह जाता है, जो धीरे-धीरे अधूरे स्वप्नों में परिवर्तित हो जाता है।'
'परन्तु उनमें कुछ सपने ऐसे भी होते हैं जो अन्तिम श्वास तक मन की धड़कनों के साथ चलते हैं...बीते समय की याद दिलाकर उल्लास भर देते हैं...और कभी एक अमिट तड़प-सी...'
'आप तो कविता करने लगे।'
'कविता तो क्या होगी...परन्तु यह सुन्दर दृश्य...यह यात्रा...यह सुहावना वातावरण...कभी न भूल सकेंगे।'
'और हम?'
'आप भी कोई भूल जाने की चीज़ हैं?' माधवी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए विनोद ने कहा।
'अगली भेंट रगून में होगी क्या?'
'नहीं तो...अभी तो तीन महीने की छुट्टी पर हूँ...लाहौर-पटना में अन्तर ही क्या?'
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