ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
घोड़ों को वृक्ष से बाँधकर दोनों नीचे हरी-भरी घाटी में उतर गए जिसमें एक निर्मल नदी जाल बिछाए हुए थी। पत्थरों से टकराती हुई उछालें, थिरकती हुई तरंगे और उमड़ते हुए छींटे, वातावरण में एक मधुर संगीत भर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए वे बढ़ते गए। बीच-बीच में छिपी-छिपी मौन दृष्टि एक-दूसरे पर डाल लेते।
घाटी में आगे जाकर नदी एक लम्बी-चौड़ी झील में परिवर्तित हो गई। तट पर बंधी नाव को खोलकर दोनों पानी में उतर गए। माधवी तख्ते का सहारा लेकर लेट गई और विनोद धीरे-धीरे नाव खेने लगा। प्रकृति का आँचल और युवा हृदय, विनोद के मस्तिष्क पर उसके निखरे हुए यौवन की परछाईं पड़ रही थी। बस चलता तो वह उसे बाहुपाश में बाँध इन मौन घाटियों में खो जाता...क्या...क्या वह...पर नहीं, वह भी पतवार छोड़कर हवा के झोंकों का आनन्द उठाने लगा। नाव लहरों के प्रवाह के साथ स्वयं धीरे-धीरे बढ़ी जा रही थी। उन दोनों के हृदयों में भी भावनाओं का ऐसा प्रवाह चल रहा था।
'मिस्टर विनोद!' 'यस मिस बरमन!'
'यस मिस बरमन क्या, सीधा माधवी कहो न!'
'तो यह मिस्टर की दुम क्यों, विनोद ही कहिए न!'
दोनों एकसाथ खिलाखिलाकर हँस पड़े और चंचल दृष्टि से एक-दूसरे को देखने लगे।
'माधवी!'
'कहिए!'
|