ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
जागते में तो शायद उसकी दृष्टि उसके सामने न ठहरती, परंतु अब सोते में वह उसे बड़ी सुगमता से बिना संकोच के देख सकता था। लड़की नये ज़माने की थी। भरे हुए कपोल, निद्रा में डूबी झुकी हुई लंबी पलकें, कंधों तक नंगी बाँहें और कुछ बिखरे हुए बाल... होंठों पर लाली और बालों में गुंथा सफेद फूल... वह सौन्दर्य और कोमलता का उत्तम संग्रह थी जिसने विनोद को उन्मादित कर दिया।
उसी समय उसके मस्तिष्क में एक विचार ने अंगड़ाई ली। काश, उसकी कामिनी भी ऐसी सुन्दर होती! यह विचार आते ही उसके शरीर में सिहरन हुई और घबराहट से वह उस सुन्दर आकृति को देखने लगा। लड़की ने करवट ली और ऐसा करने से उसकी छाती पर रखी हुई पत्रिका नीचे गिर गई और क्षण-भर के लिए उसकी आँख खुल गई।
विनोद ने झुककर पत्रिका उसे लौटा दी। उसने अधखुली आँखों से विनोद की ओर देखा और धीमे पर विनम्र स्वर में बोली, 'थैंक्यू!'
विनोद ने कुछ कहना चाहा, परन्तु कह न सका। वह लड़की फिर से पलकें बन्द कर निद्रा में खो गई।
उसी समय जहाज की होस्टैस ने पास आकर कहा-'इट इज टी टाइम।
'ओह...एक चाय।'
'काँफी फोर मी।' बन्द पलकों को कठिनाई से खोलते हुए उस लड़की ने कहा।
'देखिए...मेरे लिए भी काँफी लाइए।' विनोद ने होस्टैस को रोकते हुए कहा।
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