ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
कैसा तमाशा?' भयभीत दृष्टि से देखते हुए कामिनी ने पूछा।
'यह भूख-हड़ताल...यह सत्याग्रह...तुम अपने-आपको समझती क्या हो?
'एक अभागिनी जिसकी आकांक्षाओं का हर पग पर वध होता है।'
'ओह, तो यह पंछी बोलने भी लगा है!' विनोद ने व्यंग्य से पूछा।
'वह अधिकार भी तो आप ही ने दिया है!' कहने का साहस वह कर बैठी।
'मैंने? मेरा बस चले तो तुम्हारी सूरत भी न देखूं। मैं कहता हूं कि भलाई इसी में है, तुम अपने घर लौट जाओ।
'अपनी भलाई मैं स्वयं अच्छी तरह समझती हूँ।'
'तुम्हारा निश्चय क्या है आखिर?'
'मैं अब लौटकर कभी न जाऊँगी...मुझे इसी घर में जीने का अधिकार चाहिए।'
'तुम समझती हो कि शायद मैं तुम्हारी धमकियों में आ जाऊँगा? तूम्हें भूखा-प्यासा देखकर मुझे दया आ जाएगी? परन्तु यह कभी न होगा। मैं तो केवल यह कहने आया हूं कि यदि भूखा रहकर ही मरना है तो घर से बाहर जाकर मरो।
'अब यह पाँव यहाँ से बाहर न जा सकेंगे।'
क्रोध की अग्नि में विनोद आपे से बाहर हो गया। उसने झटके से कामिनी की बाँह पकड़कर उसे अपने स्थान से यों उठाया जैसे कोई अपने शिकार को पकड़ लेता है। भय से कामिनी का कलेजा बाहर आ गया। उसका गला सूख गया। अभी वह कुछ कह भी न पाई थी कि विनोद ने उसे खींचकर कमरे से बाहर धकेल दिया।
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