ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
आकाश पर छाए हुए बादलों के कारण वातावरण अन्धकारमय था। साँझ के सात बजे यों लगता था मानो रात का एक पहर बीत गया हो। कभी-कभी वर्षा के हल्के-हल्के छींटे पड़ने लगते। विनोद का घूमने और क्लब जाने का प्रोग्राम पूरा न हुआ।
नौकर शाम को चाय रख गया; परन्तु उसने न पी। रात का खाना आया और उसने ज्यों-का-त्यों लौटा दिया। वह अपने कमरे में अकेला बैठा विचित्र विचारों का ताँता बुने जा रहा था। उसे कामिनी पर बड़ा क्रोध आ रहा था। उसका यह ढंग उसे बिल्कुल पसंद न था; परन्तु वह उसे कुछ कहने का साहस न कर पाता, क्योंकि स्वयं उसके हृदय में चोर छिपा बैठा था।
वायु के तीव्र झोंकों ने तूफान का रूप धारण कर लिया था। सलेट की छतों पर वर्षा के छीटों से भयानक शोर उठने लगा। विनोद और कामिनी के हृदयों में भी ऐसा ही भयंकर तूफान उठ रहा था। दोनों की मनोकामनाएँ प्रबल होकर फूट पड़ना चाहती थीं। दोनों अलग-अलग कमरों में बैठे अपने भाग्य को कोस रहे थे।
एकाएक विनोद के मन में न जाने क्या आया कि क्रोध में भरा वह सीधा कामिनी के कमरे की ओर गया। धमाके से ज्योंही उसने कमरे का पट खोला, कामिनी कांपकर रह गई।
उसने अपने स्वामी की ओर देखा। क्या उसके मन में उसके प्रति करुणा आ गई थी? परन्तु नहीं...उसका अनुमान ठीक न था। आज वह पहले से कहीं अधिक क्रोध की ज्वाला में जल रहा था।
'यह क्या तमाशा है?' विनोद ने कड़कते हुए पूछा। तूफानी रात में उसकी ध्वनि बादल की गरज की भाँति उसके हृदय को चीरती हुई पार हो गई।
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