ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
रात को घूमकर विनोद कुछ देर से घर लौटा। नौकर जा चुका था; परन्तु कामिनी बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। विनोद ने कमरे में प्रवेश करते ही प्रश्न किया-'अभी तक सोईं नहीं क्या?'
'जी!' वह चौंकते हुए कँपकँपाई और बोली, 'नींद न आ रही थी।'
'तो जाओ, सो जाओ। मुझे नींद आ रही है।' विनोद ने असावधानी से अपना कोट एक ओर फेंकते हुए कहा। कामिनी उठी और कोट अलमारी में टाँग दिया।
वह धीरे-धीरे भारी पाँव से दूसरे कमरे में जाने लगी। उसके कान विनोद की ओर लगे हुए थे; परन्तु उसने एक बार भी उसे रुक जाने को न कहा। वह अपने कमरे में जाते ही बेसुध-सी पलंग पर जा गिरी और सिसक-सिसककर रोने लगी। वह अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहा रही थी। जीवन उसके लिए अन्धकारमय था। उसे कुछ समझ न आता था कि यह जीवन क्योंकर कटेगा।
दूसरे दिन नौकर ने विनोद से कहा कि उसकी पत्नी जब से आई है, भूखी है, एक दाना भी उसके गले से नहीं उतरा; परन्तु विनोद को इसकी क्या चिन्ता! वह भली भाँति जानता था कि यह मरणव्रत रखकर वह उसके मन पर अधिकार जमाना चाहती है। वह चाहती है कि वह उसे पास बिठाकर प्यार से उसके मुंह में ग्रास डाले; परन्तु यह सब उससे न होगा। वह अपने मन को उसके प्रति और कठोर बनाना चाहता था।
सायंकाल जब वह घर लौटा तो कामिनी बरामदे में बैठी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। निराश और उदास वह पत्थर की एक निर्जीव मूर्ति के समान लग रही थी। उसे वह यों प्रतीत हुई मानो कोई शव बैठा हो। विनोद ने कोई ध्यान न दिया और भीतर चला गया। आज कामिनी भी अपने स्थान से न हिली। विनोद को देखकर उसके मुख पर तनिक भी मुस्कराहट न आई और न ही कल की भाँति वह अपने देवता को उसके कमरे में पूछने आई।
|