ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'परन्तु...इन फाटकों को उठाने के लिए अभी बिजली कहां है। इतने भारी फाटक क्योंकर खुलेंगे? इन्हें कौन खोलेगा?'
'इन्हें मैं खोलूंगा! ये हाथ...'
'नहीं, यह बड़ा भयानक काम है। बहाव बढ़ता जा रहा है। प्राणों का खतरा है!'
'तो क्या हुआ? बहाव में एक अगर मैं बह गया तो कोई हानि नहीं, परन्तु यदि बांध बह गया तो हमारी समस्त आशाएँ, इस धरती का भविष्य-सब कुछ बह जाएगा।'
'तो लाइए तालियां मैं जाता हूँ।'
'नहीं रमन, मैं समय की उड़ती हुई मिट्टी हूँ जिसका कोई चिह्न नहीं और तुम एक स्तंभ हो, लोहे से भी अधिक शक्तिशाली! इस देश का भविष्य! भला मैं तुम्हें इन हाथों से क्योंकर मिटा सकता हूँ?
'आपके बिना...'
'घबराओ नहीं! तुम अकेले नहीं, मैं सदा तुम्हारे निकट हूं। तुम कहते थे न कि मैं धोखेबाज हूँ, मैंने तुम्हारी माँ को धोखा दिया, तुम्हें धोखा दिया, माधवी को धोखा दिया स्वयं को धोखा दिया...परन्तु अब मैं देश को धोखा नहीं दे सकता...इस धरती को धोखा नहीं दे सकता...भविष्य के विश्वास को धोखा नहीं दे सकता।'
रमन ने बढ़कर तालियां विनोद से छीननी चाहीं परन्तु विनोद ने पांव पीछे हटा लिए। रमन विवश था। वह न कह सका। विनोद के मुख पर उसे विश्वास की रेखाएं दिखाई दीं जो इससे पूर्व उसने कभी नहीं देखी थीं। उसकी ज़बान सूख रही थी। उसके पास उसे कहने के लिए कोई शब्द न थे। वह क्रोध में उसे इतना कुछ कह चुका था कि अब वह उसे मृत्यु के पास जाने से रोकने का भी अधिकार न रखता था।
|