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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560
आईएसबीएन :9781613015568

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'मुझसे दूर हटकर। हमें दुनिया की अनहोनी बातों को कर दिखाना है, तूफानों को अधिकार में करके धाराओं की दिशा बदलनी है। हमारा निजी जीवन हमारी परीक्षा है।'

'परन्तु एक म्यान में दो तलवारें...!'

'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय। वह देखो सामने लहराते हुए खेत! इसमें कितने विभिन्न व्यक्ति काम करते हैं और इस धरती का भला ही होता है...वह देखो बल खाती हुई नदी। इसके दो किनारे हैं और नदी को प्रवाह देने के लिए दोनों का होना आवश्यक है।'

'एक नदी दो किनारे...जीवन-भर एक-दूसरे को देखते हैं, परन्तु कभी मिल नहीं पाते।'

'दोनों किनारे मिल भी सकते हैं।'

'कैसे?'

'यह मत भूलो कि तुम इंजीनियर हो। यह बीसवीं शताब्दी है और हर असम्भव काम भी सम्भव हो सकता है। जानते हो न किनारे कैसे मिलाए जा सकते हैं!'

विनोद के इस प्रश्न पर रमन दृष्टि उठाकर उसकी ओर देखने लगा। विनोद ने एक दीर्घ श्वास खींचा और नम्रता से बोला-'एक पुल से।' रमन ने कोई उत्तर न दिया और शब्दों को समझने का प्रयत्न करने लगा। क्या वह उससे एक पुल का काम लेना चाहता है! विनोद बड़ी बेचैनी से उसका उत्तर सुनने के लिए खड़ा था।

'बस! कह लिया आपने?' कुछ क्षण चुप रहकर होंठों पर फीकी मुस्कराहट लाते हुए रमन बोला।

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