ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'रमन!' विनोद की पुकार चट्टानों से टकराकर रह गई और रमन बिना उसकी बात सुने बाहर चला गया। विनोद ने हाथ पकड़कर रोकना चाहा, परन्तु रमन ने क्रोध से उसका हाथ झटक दिया। विनोद उसके पीछे-पीछे बाहर आया और फिर उसे पुकारा, 'रमन! रमन!' थोड़ा चलने के बाद वह रुक गया और मुँह मोड़कर विनोद की ओर देखने लगा। विनोद ने फिर कहा, 'जो तुम्हारे मन में आया, सुना दिया और मेरी एक न सुनी...क्या मेरी एक न सुनोगे?
'क्या है? शीघ्र कहिए!'
'मैं तुमसे आयु में बड़ा हूँ, अनुभवी हूँ, पिता समझकर नहीं तो गुरु समझकर ही मेरी बात सुनो।'
'कहिए!'
'तुमने मेरे मन को परखने में बड़ी शीघ्रता की है।'
'जैसा समझा था, वैसा नहीं पाया। सीने में एक ही हृदय होता है, दो नहीं। अब और कैसे समझूँ?'
'एक हृदय भी दो धाराओं में बँट सकता है, दो दिशाएँ...तुम एक इंजीनियर हो, तुम्हारा सम्बन्ध वास्तविकता से है; जीवन को निकट से देखने का प्रयत्न करो।'
'तो आप अपने अपराधों पर पर्दा डालना चाहते हैं?'
'नहीं, मैं कायर नहीं, और मैंने ऐसा कोई अपराध नहीं किया, जिसका तुम दण्ड देना चाहते हो।'
'दण्ड! कैसा दण्ड?'
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