ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'धैर्य? क्या यह कम धैर्य था? काश, आपके हृदय होता तो दूसरों की पीड़ा को अनुभव कर सकते! मैं आपको एक महान् आत्मा समझता था। आपने मेरी माँ को ही नहीं, मेरे विश्वास को भी धोखा दिया। आपने यहाँ अशिक्षित, असभ्य और काले इन्सानों को ऊँचा उठाने के लिए प्राणों की बाज़ी लगा दी, परन्तु अपने घर में एक देवी को इसलिए कोई स्थान न दे सके कि वह सुन्दर न थी-कुरूप थी। आप किसी सुन्दर तितली को पालना चाहते थे। मैं पूछता हूँ, यह सुधार का काम, लोगों की भलाई, क्या यह ढोंग था? पर्दा था जिसकी आड़ में आप कोई बड़ा व्यापार करना चाहते थे? आपके सीने में माँस का लोथड़ा नहीं, भगवान ने पत्थर का टुकड़ा रख दिया है।' रमन यह सब एक साँस में कह गया।
विनोद सिर नीचा किए चुपचाप सब सुनता रहा। जब वह कह चुका तो विनोद उसके पास आते हुए बोला, चुप क्यों हो गए? कहते चलो ताकि मन में कोई इच्छा बाकी न रह जाए!'
'केवल एक बात...और अन्तिम बात!'
'क्या?'
'यह काम शीघ्र समाप्त हो जाना चाहिए।'
'क्यों?'
'ताकि मैं इतनी दूर चला जाऊँ, जहाँ आपकी छाया न पहुँच सके।'
'ठहरो, मुझे दो-चार बातें कहनी हैं तुमसे।'
'मुझे कुछ नहीं सुनना।'
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