ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'और यह भी जानता हूँ कि आग सुलगाने वाला कोई और नहीं आप ही हैं।'
'रमन!' विनोद ने कड़ी दृष्टि से उसे देखते हुए कहा।
'ऊँहूँ...क्रोध में न आइए! भाग्य ने हमें अचानक ऐसी सीमा पर ला खड़ा किया है वरना यह रहस्य जीवन-भर माँ के सीने में ही रह जाता।'
'बात लम्बी न करो! कहो, कहना क्या चाहते हो?'
'आप शायद यह सोच रहे हैं कि आपका बेटा आपसे अपना अधिकार माँगने आया है!'
'क्या कह रहे हो रमन!'
'मिस्टर मुखर्जी! मेरी माँ का बलिदान सब अधिकारों से ऊपर है। क्षण-भर रुककर वह फिर बोला, और आप मुझे दे भी क्या सकते हैं! पिता का प्यार! वह पत्थर-हृदय पिता जो जीवन में ही मुझे अनाथ बनाकर छोड़ दिया, अब क्या प्यार देगा? रुपया सम्पत्ति...नहीं, सब व्यर्थ है, असत्य है, झूठ है, छल है! जो व्यक्ति स्वयं अपनी पत्नी को ठुकराकर केवल शारीरिक सुन्दरता के लिए दूसरों के टुकड़ों पर निर्भर हो, वह मुझे क्या देगा?'
'रमन! इतना मुँह न खोलो, ठंडे मन से सोचो! धैर्य से...'
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