ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
एकाएक उसकी दृष्टि कुर्सी पर पड़ी। रमन उसकी ओर पीठ किए बैठा कुछ देख रहा था। आहट हुई और उसने मुड़कर देखा-दोनों की आँखें चार हुईं। दोनों चुप थे परन्तु दोनों की आँखों में कोई गहरा प्रश्न छिपा था। विनोद अपनी घबराहट पर अधिकार पाने के लिए बढ़कर मेज़ की दराज़ खोलकर कुछ टटोलने लगा।
'आप शायद इसकी खोज में हैं?' रमन ने विनोद का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए अपना पिस्तौल उनकी ओर बढ़ाया।
'नहीं...अभी अपना फुल है। कमरबन्द में लटका हुआ अपना पिस्तौल दिखाते हुए विनोद ने मुस्कराकर उत्तर दिया।
चंद क्षण चुप रहने के पश्चात् विनोद ने पूछा- 'परन्तु इतने सवेरे यहाँ क्या हो रहा है?'
'आप इस समय क्या लेने आए?'
'मैं?' होंठों को कुछ टेढ़ा करते हुए विनोद ने हल्की-सी हंसी हवा में छोड़ी और बोला-'अपनी चिन्ताओं को दूर करने-यहाँ चला आया।'
'मैं भी कुछ इसी कारण से यहाँ आया हूँ...एकान्त की खोज में।'
'परन्तु तुम्हें कैसी चिन्ता?' विनोद ने उत्साहपूर्वक पूछा।
'आपके घर आपकी सुन्दर पत्नी है न, शायद उसके आँसू आपसे देखे नहीं गए।...मेरे घर पर भी एक स्त्री है-मेरी माँ, उसके आँसू मुझसे न देखे गए तो यहाँ एकान्त में चला आया।'
'रमन, यह तो तुम जानते ही हो कि दोनों घरों में एक ही आग लगी हुई है।'
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