ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
रात दो पहर बीत चुकी थी। विनोद और माधवी दोनों अपने-अपने बिस्तरों पर लेटे करवटें बदल रहे थे। दोनों मानसिक उलझनों में...असमंजस में थे। दोनों एक-दूसरे से कुछ बोलने का साहस न कर रहे थे।
सवेरे माधवी की आँख खुलने से पहले ही विनोद घर से चला गया। अभी पौ फटने में देर थी। जाड़े की ठण्डी हवा शरीर को काट रही थी, परन्तु वह इसकी चिन्ता न करते हुए उत्तरी घाटी की ओर रवाना हो गया। वह दिन के उजाले से भी घबराता था।
नदी का बहाव आज कुछ तेज़ था। किनारे से टकराते हुए पानी की ध्वनि वातावरण में एक गूँज भर रही थी। यह नदी अब विनोद का जीवन था। वह अपना सब कुछ इसी को भेंट कर देना चाहता था। उसके व्याकुल हृदय को इससे शांति मिलती। ये हल्के और तेज़ थपेड़े उसका पथ-प्रदर्शन करते थे, उसे मंज़िल की सूचना देते थे। बांध तैयार हो चुका था और दो-चार दिन में ही नदी के प्रवाह की दशा इस ओर बदली जानी थी।
आज त्यौहार के कारण सब मजदूरों की छुट्टी थी। विनोद बांध पर अकेला रहना चाहता था, एकान्त में उसे शान्ति मिलती थी।
इन्हीं विचारों में डूबा हुआ वह कम्पनी के दफ्तर तक जा पहुँचा। सीमेंट का साफ-सुथरा चबूतरा आज कुछ अधिक निखरा हुआ प्रतीत होता था। कुछ चौकीदारों को छोड़कर वहाँ कोई व्यक्ति न था। सर्वत्र मौन था। उसने खुले वातावरण में सांत्वना की सांस ली और हिमालय की बर्फीली चोटियों को देखा जो प्रभात की सुनहरी किरणों में यों चमक रही थी मानो एक साथ बहुत-से चाँदी के झरने फुट निकले हों।
पग उठाता वह दफ्तर के द्वार तक जा पहुँचा। द्वार खुला था। वह सहसा चौंक गया और आस-पास देखने लगा-वहाँ कोई न था।
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