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ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'कैसा?'
'आप कहते थे न कि मैं आपको दुनिया में सबसे अच्छी लगती हूँ?'
'निःसन्देह!'
'तो आप कैसे व्यक्ति हैं कि आपने मुझे ही धोखा दिया?'
'अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ कि यह धोखा नहीं!'
'आपने मुझसे झूठ कहा, दुनिया और समाज से झूठ कहा। नाम और वेश बदलकर आप इस एकान्त कोने में आ गए और मैं आपके हर संकेत पर नाचती रही, आपकी हर बात मानती रही, यह न जानते हुए कि आप मुझे जीवन का सबसे बड़ा धोखा दे रहे हैं।'
'मूर्ख न बनो और बुद्धि से काम लो। धोखा मुझसे हुआ। मैंने घाव को हृदय में छिपाए रखा और तुम पर स्पष्ट न होने दिया। यदि आज भाग्य ने स्वयं इस रहस्य को प्रकट कर दिया तो हमें वास्तविकता का सामना करना चाहिए, धैर्य और साहस से काम लेना चाहिए।'
'आप पुरुष हैं, स्त्री के हृदय को नहीं पहचान सकते वरना आप यों न कहते!'
'उफ! मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता! मैं तुम लोगों को क्योंकर समझाऊँ। योंही चिन्ताएँ बढ़ती गईं तो न जाने क्या कर बैठूँ!' खीझकर वह हड़बड़ाने लगा। माधवी उसके मन की यह दशा देखकर चुप हो गई। वह यह जानती थी कि चिन्तित व्यक्ति पर अधिक प्रश्न करना बुरा प्रभाव डालता है। दोनों ने रात का खाना खाया और समय से पहले ही सोने के लिए अपने-अपने बिस्तरों पर आ लेटे।'
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