ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'और आप?'
'मुझे क्या लेना है?'
'आपको नहीं, उन्हें तो लेना है।'
'माधवी!' आश्चर्यचकित विनोद बोला।
'मुझसे इतना दूर न रहिए, मैं आपको कर्त्तव्य पूरा करने की कह रही हूँ। मैं इतनी संकीर्ण हृदय नहीं कि...'
'माधवी, अब मैं तुमसे क्योंकर कहूँ कि यह सब क्यों और कैसे हुआ?'
'मैं जानती हूँ। आपको कामिनी पसन्द न थी। आपको धोखा हुआ और आपने उसका बदला लिया। परन्तु मैंने तो आपको कोई धोखा नहीं दिया था। आपने मुझसे यह छल क्यों किया?'
'यही सोचता हूँ कि मैंने ऐसा क्यों किया? माधवी, यों जान पड़ता है कि भाग्य को चलाने वाली कोई और शक्ति है। वरना तुमसे भेंट...दोनों का जहाज़ से रह जाना...जहाज़ की दुर्घटना और ब्याह...दुनिया वालों की आँखों से कोसों दूर...'
'और भाग्य से इन्हीं उजाड़ घाटियों में रमन से भेंट, दोनों का एक साथ काम करना और कामिनी से भेंट!' माधवी ने विनोद की बात पूरी करते हुए कहा।
'अब तुम ही कहो' मेरे अधिकार में क्या था?'
'आपका मन, मस्तिष्क, कर्त्तव्य...वरना आप...जीवन में कभी ऐसा पग न उठाते।'
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