ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
|
8 पाठकों को प्रिय 429 पाठक हैं |
'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
घबराहट में वह माधवी की ओर देखने लगा, जो बात करते-करते रुक गई थी और चन्द क्षण के मौन के बाद फिर बोली- 'शायद कामिनी को देखने चले गए हों!'
'क्यों?'
'सुना है वह बीमार है।'
'तो क्या हुआ?'
'इंसानियत के नाते पूछ रही थी।'
'विनोद ने माधवी की बात का कोई उत्तर न दिया और मुँह धोकर चाय की मेज़ पर आ बैठा। माधवी ने चाय बनाई और प्याला बढ़ाते हुए बोली-'देखती हूँ, कई दिनों से खोए-खोए रहने लगे हैं आप?'
'नहीं तो! इतना बड़ा काम जो लिया है अपने ऊपर, उसे पूरा करना ही है।'
'एक बात कहूँ?'
'कहो!'
'बहुत दिनों से रमन नहीं आया!'
'तो क्या?'
'इसी बहाने उमे भी मिल आएँ और कामिनी को भीं...'
'कामिनी, कामिनी...यह क्या रट लगा रखी है! तुम्हें जाना हो तो जाओ।'
|