ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
कमरे के बाहर द्वार पर आहट हुई और वह सँभलकर बैठ गया। रमन ने भीतर प्रवेश किया। विनोद चुपचाप अपने स्थान पर बैठा उसे देखता रहा। रमन ने ट्रे में से चन्द फाइलें उठाईं और बिना उसकी ओर देखे बाहर चला गया। विनोद उसके पाँव की आहट को धीरे-धीरे कम होते सुनता रहा। जब पाँव की आहट घटते-घटते बिल्कुल बन्द हो गई तो उसने कुर्सी से उठकर बाहर झाँका-रमन शीघ्र पग बढ़ाता नीचे घाटी में उतर रहा था।
अपनी परिस्थिति और हृदय की विवशता पर विनोद की आँखों में आँसू छलक आए। रमन आज उससे बिना बात किए घर चला गया था। उसने इतना भी न पूछा कि इतनी देर गए वह वहाँ किसलिए रुका था।
आजकल दफ्तर के काम को छोड़कर वह उससे कोई और बात न करता। विनोद कभी उससे कोई और बात पूछ भी बैठता तो वह किसी प्रकार टाल देता। एक बार तो उसने उसके मुंह पर भी स्पष्ट कह दिया-'मिस्टर मुखर्जी! अच्छा यही रहेगा कि हम एक-दूसरे की निजी बातों में हस्तक्षेप न करें।'
उस दिन के बाद विनोद को कभी यह साहस न हुआ कि वह रमन से कोई बात पूछे। आज भी अपने प्रति उसकी यह उपेक्षा देखकर उसे दुख-सा हुआ, परन्तु उसने धैर्य से काम लिया और घर जाने की तैयारी करने लगा।
घर जब पहुँचा तो माधवी पहले से ही उसका मार्ग देख रही थी।
'आज देर क्यों हो गई?' माधवी ने उसके आते ही पूछा।
'हाँ, आज काम अधिक था।'
'ओह! मैं समझी, शायद कामिनी...'
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