ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
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दिन-भर का थका सूरज पश्चिम की गोद में सोने की तैयारी कर रहा था। अंधेरा अभी फैला न था। विनोद अकेला दफ्तर में बैठा बाहर का दृश्य देख रहा था। मज़दूर काम निबटाकर घरों को लौट रहे थे। घाटी में काम-काज में लगे हुए लोगों का शोर-गुल घटता जा रहा था और निस्तब्धता बढ़ती जा रही थी।
धीरे-धीरे सब लोग चले गए और घाटी में सन्नाटा छा गया। आज पानी के बहाव में भी कोई विशेष तेज़ी न थी, कोई शोर न था। नया बनाया हुआ बाँध एक अजगर की भाँति अपनी छाया घाटी पर डाल रहा था।
विनोद चुपचाप बैठा विचारों में खोया बाहर देखने लगा। उसकी चन्द वर्ष पूर्व की कल्पना वास्तविकता बनकर उसके सम्मुख खड़ी थी। इस बाँध से साँपू नदी का ज़ोर आधा हो जाएगा और इसके बाद आगे बड़ा डैम बनाकर वह आसाम के इतिहास में एक नये युग का आरम्भ कर देगा।
जहाँ आसाम का बदलता हुआ इतिहास उसे शान्ति का सन्देश देता वहाँ, उसका निजी घरेलू जीवन उसके लिए चिन्ता का कारण बन गया। काम के बाद घण्टों इसी दफ्तर में अकेला बैठा वह सोचता रहता। घर में वह माधवी के सामने होने से घबराता था। उसका मन उसे यह कहता कि माधवी उसके जीवन का भेद जान चुकी है। परन्तु अपने प्रति उसका व्यवहार देखकर उसे यह भ्रम प्रतीत होता। क्या उसका अपना पाप ही मस्तिष्क पर भय की छाया डाल रहा था।
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