ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'माँ! पीड़ा से कराहते हुए रमन चिल्लाया।
पर्दे के पीछे खड़ी हुई माधवी भी धक् से कलेजा थामकर रह गई। कामिनी दृढ़ता से उठते हुए बोली-'हाँ, रमन!' यह सत्य है। तुम्हारे पिता इसी दुनिया में हैं और मृत्यु की आड़ में दूसूरा विवाह करके आनन्द ले रहे हैं।'
'माँ, यह सब क्या?'
'मैं तो उसी दिन जान गई थी जब तुम उन्हें अपने यहाँ खाने पर लाए थे। होश आने पर इसीलिए वह भाग आए थे कि कहीं उनके जीवन का रहस्य हम न जान लें। क्या तुम्हें मुखर्जी के मुख में छिपी अपने पिता की छवि दिखाई नहीं दी? दाढ़ी और आयु की पक्की रेखाओं में निहित क्या यह वही मोटी-मोटी आँखें नहीं, जिनको देखने के लिए मैंने पूरा जीवन खो दिया?'
'माँ, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता, यह सब क्या है?'
'मैं स्वयं भी इसे क्या समझूँ? मैं उन्हें इस संसार में न समझकर अपनी जवानी के फूल बीन-बीनकर उनकी तस्वीर पर चढ़ाती रही। न जाने कितनी आँसुओं की लड़ियाँ पिरोकर मैंने अपने स्वामी की स्मृति को जीवित रखा। जाने किस कठिनाई से मैंने अपनी व उनकी निशानी को पाला-पोसा, बड़ा किया और अपने पिता का प्रतिरूप बना दिया। क्या यह सब इस दिन के लिए था कि वह अचानक आकर तुम्हें मुझसे छीन लें और मैं अभागिन निरन्तर दुख की चिन्ता में जलती रहूँ?'
'ऐसी बात मुँह से न निकालो!'
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