ई-पुस्तकें >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नन्दा
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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।
'हाँ, मैं चाहती हूं!' क्रोध में वह चिल्लाई।
'आखिर क्यों? कोई कारण भी तो हो?'
वह चुप रही और आँसू पीकर रमन की ओर देखने लगी जिस-की आँखों में एक ही प्रश्न झलक रहा था-आखिर क्यों? इंसान एक-दूसरे के मेल-जोल का भूखा होता है। इस उजाड़ में भी वह दो घड़ी किसी से मिल-जुलकर न बैठे तो जीना दूभर हो जाए। इस बात को कामिनी भी भली-भाँति समझती थी, परन्तु वह चुप रही। कुछ देर चुप रहकर रमन फिर एक बार चिल्लाया-'माँ, आखिर क्यों?'
'जानना ही चाहते हो तो कलेजे पर पत्थर रख लो!'
'कोई परीक्षा लेनी है क्या?'
'नहीं, मैं तुम्हें इतना ही कह देना चाहती हूँ कि हमें उस घर में कभी न जाना चाहिए।'
'क्यों?' रमन ने भय से कमरे में चारों ओर देखते हुए पूछा।
'यही मेरे जीवन का रहस्य है।'
'क्या?' रमन माँ को सहारा देकर पास ही बिस्तर पर बैठ गया। कामिनी के जीवन का रहस्य जानने के लिए माधवी पर्दे के पीछे चौकन्नी हो गई। काँपते होंठों से कामिनी बोली-'जानते हो यह मुखर्जी कौन है?'
'नहीं तो!'
'यह मुखर्जी नहीं, इनका असली नाम विनोद है, तुम्हारे पिता।'
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